गुरुवार, सितंबर 16, 2010

अमेरिका की दोगली नीति उजागर

  दुनिया के बाकी देशों, खासकर गरीब और विकासशील देशों, को उदारवादी आर्थिक नीतियां अपनाने के लिए एक तरह से मजबूर करने वाले अमेरिका को अब स्वदेशी की चिंता सताने लगी है। उसने बाकयदा विधेयक पारित करके कांग्रेस (भारतीय राजनीतिक दल नहीं) को वही सामान और सेवाएं खरीदने के लिए बाध्य कर दिया है जो उसके देश में बनी या उत्पादित हुई हो। इतना ही नहीं 1941 से लागू बेरी अमेंडमेंट एक्ट के दायरे को भी बढ़ा दिया है। फलस्वरूप अब अमेरिकी गृह मंत्रालय भी केवल मेड इन अमेरिका उत्पाद ही खरीद सकेगा। पहले बेरी अमेंडमेंट एक्ट केवल रक्षा विभाग पर लागू था।
उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व अमेरिका ने वीजा शुल्क में बढ़ोत्तरी करके और अपने यहां काम करने वाली कंपनियों को टैक्स में राहत मुहैया कराकर भारत के आईटी सेक्टर को हतोत्साहित करने की कोशिश की थी।
 मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के जनक और हिमायती अमेरिका के उक्त कदमों से हमारे देश को सबक लेना चाहिए, जो विदेशी कंपनियों के स्वागत के लिए हमेशा लाल कारपेट हाथ में लिए दौड़ता रहता है।
भारत के रहनुमाओं को भी अपने देश, यहां की कंपनियों, लघु उद्योगों और जनता के हितों को ध्यान में रखकर ही कोई फैसला लेना चाहिए न कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

अर्जुन उवाच

 अंतत: अर्जुन सिंह ने अपना मुंह खोल ही दिया, पर उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो चौंकाने वाला हो। सबको पता था कि वे राजीव गांधी को गुनहगार नहीं ठहराएंगे। उन्होंने  यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख वॉरेन एंडरसन को छोड़ने के लिए तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री नरसिंह राव को कटघरे में खड़ा करके एक बार फिर इंदिरा-राजीव परिवार के प्रति अपनी निष्ठा प्रमाणित करने की नाकाम कोशिश की है। लेकिन एक सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि श्री सिंह ने यही बात उस समय क्यों नहीं कही जब पूरे देश में हंगामा बरपा हुआ था?
अर्जुन सिंह ने राज्यसभा में बुधवार को भोपाल गैस त्रासदी संबंधी घटनाक्रमों पर चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख वॉरेन एंडरसन को छोड़ने के लिए गृह मंत्रालय से कई बार फोन आए थे। साथ ही उन्होंने राजीव गांधी का बचाव करते हुए कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एंडरसन के समर्थन में एक भी शब्द नहीं कहा था। उल्लेखनीय है उस समय गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव थे। अर्जुन सिंह ने कहा कि भोपाल की धरती पर कदम रखते ही एंडरसन को गिरफ्तार करने का निर्णय उन्होंने ही किया था। वह चाहते थे कि इस मामले में एंडरसन की गिरफ्तारी हो जाए ताकि उसे उसके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए जरूरत पड़ने पर उसे बुलाया जा सके।
 भोपाल गैस त्रासदी में भोपाल की एक अदालत द्वारा सुनाए गए फैसले के बाद इस पूरे मामले में देश में नए सिरे से बहस छिड़ गई है। यूनियन कार्बाइड कंपनी के तत्कालीन प्रमुख वॉरेन एंडरसन के देश से सुरक्षित निकल जाने के मुद्दे पर कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकार और मध्यप्रदेश सरकार पर सवालिया निशान लगाए गए हैं लेकिन अदालत का फैसला आने के बाद अर्जुन सिंह ने बुधवार को पहली बार कोई बयान दिया।

शनिवार, मई 01, 2010

वागर्थ के अप्रैल अंक के आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित

  तुम्हीं से मुक्ति पानी है तुम्हीं पर है फना होना
यह मुश्किल काम बाँहों में लिपटकर हो नहीं सकता।
अगर दुनिया बदलनी है तो दुनिया से अलग तो आ
यह दिलकश खेल घर दीवार रखकर हो नहीं सकता।
मुसीबत है कि हम अपने को अपनों में तलाशे हैं
यह जाहिर है कि कुछ भी यूँ सिमट कर हो नहीं सकता।
                                         -भगवान सिंह

गुरुवार, अप्रैल 15, 2010

कौन हैं सीमा आजाद ?

  आपको पता है सीमा आजाद कौन हैं? ईमानदारी के साथ बताइएगा, यदि आप ना कहेंगे तो आपकी विद्वता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाएगा। खैर, हो सकता है आप जानते हों, पर मैं तो नहीं जानता था, हंस का अप्रैल अंक देखने के पहले।
बकौल हंस- सीमा विश्वास एक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता हैं, वे जनता के हितों के लिए संर्घषरत हैं, इसके लिए शासन और प्रशासन के खिलाफ आवाज (बंदूक नहीं) उठाने से उन्हें गुरेज नहीं है। गत दिनों जब सरकार ने नक्सलियों के सफाए के लिए आपरेशन ग्रीन हंट प्रारंभ किया तो उन्होंने उसकी आलोचना भी की थी। सरकार ने उन्हें राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप में गत 6 फरवरी को गिरफ्तार कर लिया। इसी तरह से पूर्व में छत्तीसगढ़ सरकार ने विनायक सेन को गिरफ्तार किया था। सवाल यह है कि क्या सरकारी नीतियों या फैसलों का विरोध करना गैरकानूनी है?

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

पाश की याद

 
गत दिनों विकास संवाद के एक कार्यक्रम में शिरकत करने की गरज से मैं महेश्वर गया था। वहीं से ओंकारेश्वर में नर्मदा पर बन रहे बांध से विस्थापित होने वालों के गांवों में भी जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। पता नहीं क्यों जिस दिन गांव वालों से मिला उसी दिन से अवतार सिंह पाश की कविता (हम लड़ेंगे साथी)बहुत याद आ रही है। महेश्वर से आने के बाद मैं काफी व्यस्त रहा लेकिन इस व्यस्तता में भी कविता के पुनर्पाठ के लिए व्याकुल रहा। जैसे ही फुर्सत मिली मैंने उक्त कविता को एक बार नहीं कई बार पढ़ा और चाहता हूं कि इसे दूसरे लोग भी पढे। 

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये
हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले खुद नहीं सूंघते
कि सूजी आंखों वाली
गांव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्व से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाईयों का गला घोटने को मजबूर हैं
कि दफतरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे

गुरुवार, जनवरी 07, 2010

रुचिका कांड: राठौर की पत्नी और उनकी वकील आभा से चंद सवाल


तुम भी तो एक औरत हो आभा
तुम्हें तो पता होना चाहिए
इज्जत की अहमियत क्या है
भारतीय समाज में
जिस व्यक्ति को बचाने
तुम कर रही हो जीतोड़ कोशिश
उसे एकांत में दे पाती हो सम्मान
एक पति या बच्चों के पिता का?
अदालत से निकलते हुए
तुम्हारे चेहरे की बनावटी मुस्कान
कर रही थी चुगली
कि छुपा रही हो बहुत कुछ
सिर्फ चोर की दाढ़ी में नही होता तिनका
उसके साथी को भी सताता है भय
किसी भी क्षण पकड़े जाने का
और तुम तो बन चुकी हो संरक्षक
कोई अदालत नहीं दे सकती
तुम्हें इसके लिए सजा
तुम खुद बन जाआोगी
गुनहगार अपनी नजरों में

शनिवार, जनवरी 02, 2010

कविता

जब नाजी कम्युनिस्टों के पीछे आए
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं नाजी नहीं था
जब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद किया
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था
जब वे यूनियन के मजदूरों के पीछे आए
मैं बिल्कुल नहीं बोला
क्योंकि,मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था
जब वे यहूदियों के पीछे आए
मै खामोश रहा
क्योंकि, मैं यहूदी नहीं था
लेकिन, जब वे मेरे पीछे आए
तब बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
क्योंकि, मैं अकेला था
         -पीटर मार्टिन जर्मन कवि